दुर्भाग्यवश शिक्षा प्रणाली में पुस्तक की हैसियत इकलौती शिक्षण सामग्री की!!

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हमारे समाज में एक ही पाठ्यपुस्तक की परिपाटी का पोषण शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा भी होता है। बी.एड. और एन.टी.टी. के प्रशिक्षण कार्यक्रम इतनी पुरानी शिक्षादृष्टि पर आधरित हैं कि प्रशिक्षित शिक्षकों की शिक्षण-शास्त्र की समझ और बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को लेकर उनका नजरिया , उन्हें पाठ्यपुस्तक के दायरे से बाहर निकलकर कुछ नया सोचने और करने के लिए न तो दिशा देता है और न ही कुछ करने के लिए सक्षम बनाता है।

स्कूल में आने पर एक पाठ्यपुस्तक द्वारा नियंत्रित शिक्षा प्रणाली शिक्षक की इस मानसिकता को और पुख्ता करती है। दरअसल पाठ्य-पुस्तकें शिक्षक के अशक्तिकरण के कई प्रतीकों में से एक हैं। शिक्षक व्यवस्था द्वारा संचालित होने के इतने आदी हो चुकें हैं कि शिक्षा के संदर्भ में वे स्वतंत्र होकर सोचने और निर्णय लेने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते।


कोई विषय पढ़ाने के या बच्चों में विभिन्न अवधरणाओं की समझ विकसित करने के लिए किन शिक्षण सामग्रियों का इस्तेमाल कैसे किया जाए, ये शिक्षण पद्दति के बुनियादी पहलू हैं। कोई भी अच्छा शिक्षण-शास्त्र एक शिक्षण-सामग्री का पक्षधर नहीं होता। पाठ्यपुस्तक कई शिक्षण सामिग्रयों में से एक होती है, पर दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा प्रणाली में इसकी हैसियत इकलौती शिक्षण सामग्री की है।


यह कैसे संभव है कि लोकतंत्र की बँधी-बंधाई परिभाषा और उदाहरण याद करके बच्चे वास्तव में इन अवधारणाओं को समझ पाएँगे और जीवन के वास्तविक सन्दर्भों लोकतान्त्रिक और गैरलोकतान्त्रिक स्थितियों की पहचान कर पाएँगे? इसी प्रकार हिंदी या किसी भी भाषा की एक पुस्तक पढ़कर, जिसमें रूढ़ किस्म की पाठ्य-पुस्तकीय हिंदी का ही प्रयोग किया गया हो, हिंदी पर बच्चों की पकड़ कैसे मजबूत हो सकती है? वे कैसे हिंदी की विविध् रंगों से वाकिफ हो सकते हैं और भाषा के सौंदर्य को सराहने की दृष्टि विकसित कर सकते हैं? यदि पाठ्य-पुस्तकें , लेखन के नाम पर रटकर लिखने की परंपरा को प्रोत्साहन देती हैं, तो लेखन बच्चों के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम होनेके बजाय, यांत्रिक कौशल बनकर रह जाएगा। भाषा की कोई भी पाठ्यपुस्तक उसके विस्तृत फलक व समृद्ध साहित्य का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती।

शिक्षा के क्षेत्र में यह सर्वमान्य तथ्य है कि बच्चे अपने परिवेश से खुद सीखते हैं बशर्ते कि उन्हें समृद्ध परिवेश मिले। यह बात भाषा पर भी पूरी तरह लागू होती है। बच्चों को समृद्ध भाषायी परिवेश एक पाठ्यपुस्तक के जरिये नहीं मिल सकता। विभिन्न सन्दर्भों के अनुरूप तरह-तरह से भाषा का प्रयोग करने के मौके भी पाठ्यपुस्तकों में प्राय: नहीं मिलते। ऐसे में जरूरी है कि पाठ्यपुस्तकों के दायरे से बाहर जाकर अन्य भाषाओं व विधाओं का साहित्य और एक ही रचनाकार की कई रचनाएँ पढ़ने के मौके बच्चों को मिलें। साहित्य को केवल `सृजनात्मक साहित्य´ तक सीमित करके न देखा जाए, बल्कि भाषा का प्रयोग जिन विविध् उद्देश्यों के लिए होता है, उनके नमूने बच्चोंके सामने प्रस्तुत किए जाएँ, ताकि वे भी भाषा का विविध् इस्तेमाल करना सीख पाएँ।

भाषा जानने का अर्थ केवल पाठ्यपुस्तकों द्वारा परोसा गया सीमित साहित्य जानना नहीं होता, बल्कि किसी भी रूप में प्रस्तुत भाषा को समझ पाना और भाषा के माध्यम से अपनी भावनाओं व सोच को अभिव्यक्त कर पाना भी होता है। इसके साथ-साथ भाषा अवलोकन, विश्लेषण और तर्क करने जैसे बौद्धिक कौशलों के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पर इस भूमिका से अधिकांश लोग अनभिज्ञ होते हैं।


पाठ्यपुस्तकों में तो भाषा की इस भूमिका की कोई जगह ही नहीं होती। ऐसे में शिक्षण-सामग्री के दायरे में अतिरिक्त सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ पत्रिकाओं - अखबारोंके संपादकीय, खबरें, लेख, फिल्मों व किताबों की समीक्षाएँ, चित्र , फोटोग्राफ , तालिकाएँ, विज्ञापन, पोस्टर आदि बहुत कुछ आ सकता है। इनकी सहायता से बच्चों को कल्पना, अभिव्यक्ति, अवलोकन, विश्लेषण, सोचने, अपनी प्रतिक्रिया या राय देने और मुक्त होकर साहित्य का आनंद उठाने के मौके दिए जा सकते हैं। कुल मिलाकर भाषा के समृद्ध परिवेश में डूबकर ही बच्चे भाषा को उसकी समग्रता में ग्रहण कर सकते हैं। भाषा ही नहीं किसी भी विषय के लिए यदि हम ऐसे शिक्षण शास्त्र को आधार बनाएँ, तो पाठ्यपुस्तकों का अनावश्यक वर्चस्व खत्म हो सकता है। सीखने-सिखाने के सार्थक और बालकेंद्रित तरीकों को पर्याप्त जगह /स्पेस मिल सकती है और कक्षा में शिक्षक की भूमिका में गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है।

पर इस सारे परिदृश्य को बदलने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बदलाव, मूल्यांकन पद्दति में बदलाव और राजनीतिक इच्छाशक्ति की सख्त जरूरत है। स्थानीयचीजें एक स्वाभाविक अधिगम का स्रोत हैं जिन्हें कक्षा में कार्य संपादन के निर्णय लेते समय प्रधानता देनी चाहिए। स्थानीय परिवेश केवल भौतिक-प्राकृतिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक भी होता है।

हर बच्चे की घर में अपनी आवाज होती है। स्कूल के लिए आवश्यक है कि कक्षा में भी वह आवाज सुनी जाए। समुदायों का सांस्कृतिक स्रोत भी प्रचुर होता है, लोककथाएँ, लोकगीत, चुट्कुलें , कलाएँ आदि जो स्कूल में भाषा और ज्ञान को समृद्ध बना सकते हैं। इससे मौखिक इतिहास भी समृद्ध होगा। लेकिन क्या हम कक्षा में चुप्पी को लादकर बच्चों को दबाते नहीं हैं?







  • तकनीकी गलतियों की अगली कड़ी में शायद इस लेख की फीड आप पहले ही प्राप्त कर चुके होंगे ......बर्दाश्त करनेके लिए शुक्रिया !!

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12Comments
  1. सुन्दर पोस्ट! प्राईमरी स्तर पर बच्चों का मन पढ़ने में /सीखने में लगे इसके लिये बहुत मेहनत की जरूरत होती है।

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  2. पोस्ट अच्छी है। पुस्तकों की भूमिका सहायक होना चाहिए। लेकिन वे मुख्य भूमिका में आ गई हैं और शिक्षक की भूमिका गौण हो चुकी है।

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  3. बहुबहुत ही सटीक पोस्ट. एक मुद्दे की बात कही है . आभार.

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  4. अच्छी पोस्ट!
    पर पुस्तक तो सहायक मात्र हैं। शिक्षक की इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि वो कैसे पढ़ाए। ख़ुद बोले और बालक सिर्फ़ सुनें या दोनों बोलें:)
    आज तो प्रोजेक्ट का ज़माना है। बच्चे बोलने के साथ-साथ करके सीखते हैं। पर निर्भर शिक्षक पर ही है कि वो कैसे...

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  5. उत्‍तर प्रदेश में केयर इण्डिया ने पाठय पुस्‍तकों से इतर मनोरंजक साहित्यिक पुस्‍तकों को आधार बनाकर शानदार प्रयोग किये हैं, जो काफी सफल रहे हैं।

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  6. मास्‍साब जी बहुत अच्‍छा लिखा है आपने बेहतरीन

    बधाई हो

    (देरी से आने के लिए माफी चाहूंगा)

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  7. प्राइमरी-नर्सरी के बच्चे को पढ़ाना कहीं ज्यादा कठिन है बनिस्पत पोस्ट ग्रेज्युयेट कक्षा पढ़ाना।

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  8. बेहद आवश्यक लेख।

    पाठक जगत् की ओर से धन्यवाद।
    राजर्षि

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  9. घिसी हुई लकीर पर चलते जाने में ही जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग लगभग यूँ ही गंवाने को विवश हैं बच्चे.

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  10. पाठ्यपुस्तकों के निर्माताओं और शिक्षाविदों को समझाने के फिल्म-निर्माताओं को केवल उनके लिए "थ्री-ईडियट", "तारे ज़मीन पर" जैसी फिल्मो का निर्माण करना चाहिए. लेकिन यह मुझे संदेह है कि वह सफल होगी!

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  11. बहुत अच्‍छा लिखा है

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