पिछले २० दिनों से ब्लॉग दुनिया में सक्रियता कई कारणों से कम हो गई थी , मन में कुछ व्यथाएं थी जो चाहते हुए भी आपसे नहीं बाँट सका , एक अंगुली भी चटक गई , तो लिखना और टिपियाना भी कम रहा इस दौर में !!! मन नहीं माना तो कुछ न कुछ बीच में खटर- खटर करता रहा। कोशिश करूंगा की आगे से नियमितता बनी रहे। .....चलते चलते बता दूँ की इस प्रस्तुति की टाइपिंग सौजन्य अपनी मास्टरनी के हवाले से !!
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक विशिष्ट कवि के रूप में दुनिया में

इस क्रम में शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी उनकी पैनी दृष्टि पड़ी है जो सालों बाद भी हद दर्जे तक आधुनिक लगती है। विद्यालयों की स्थिति को लेकर रवीन्दनाथ की चिंता द्रष्टव्य है-
"इस देश में हम जिसे स्कूल कहते हैं वह शिक्षा देने का एक कारखाना है। अध्यापक इस कारखाने का अंग है। साढ़े दस बजे घंटी बजती है और कारखाना खुलता है।कक्षाएं चलती रहतीहै और साथ ही अध्यापक का मुँह चलता रहता है। चार बजे कारखाना बंद हो जाता है और साथ ही अध्यापक रूपी मशीन भी अपना मुँह बंद कर देती है।छात्र-छात्राएं स्कूल से प्राप्त विद्या के दो-चार पन्ने रटकर घर लौट जाते हैं।उसके बाद परीक्षा के समय इस विद्या की जाँच होती है और उस पर चिन्ह लगा दिया जाता । "
गुरु द्वारा उपर्युक्त प्रस्तुत व्यंग्यात्मक रूपक, उस शैक्षिक प्रणाली की विकृतिपूर्ण सच्चाई को उजागर करता है जो आज भी कमोबेश किसी न किसी रूप में प्राय: सभी विद्यालयों में चलन में है। टैगोर ने अपने समय की शिक्षा सेजुड़ी विभिन्न समस्याओं पर गहन चिंतन किया और उनके समाधान के लिए जो सुझाव दिये, वे वर्तमान की कईशैक्षिक उलझनों को सुलझाने में भी कारगर प्रतीत होते हैं। इस तरह उनका शैक्षिक विमर्श आधुनिक कहा जासकता है।
यहाँ गुरुदेव के कुछ ऐसे ही विचारों की प्रासंगिकता को आज के सन्दर्भों में परखने का प्रयास किया गया है।व्यंग के इस अर्थ में गुरुदेव का निहितार्थ है कि शिक्षा-व्यवस्था में, विद्यालयों में विद्यार्थियों को वस्तु की तरह एक उत्पाद के रूप में तैयार किया जा रहा है। यह ऐसा उत्पाद है जिसका शरीर गतिशील है लेकिन उसका अस्तित्व विद्यालय रूपी कारखाने में जड़प्राय हो गया है।
विद्यालय वह स्थल है जहाँ बच्चों की सर्जनात्मक प्रतिभा काविकास किया जाना अपेक्षित है, लेकिन वह बच्चों की रचनात्मक क्षमता का विकास न कर, उन्हें कुंठित कर देताहै। विद्यार्थी जो कुछ करता है, वह स्वेच्छा से न होकर आरोपित होता है। आज भी ऐसे विद्यालय मुश्किल सेमिलते हैं जहाँ बच्चे उत्साह-पूर्वक जाते होंगे।रवीन्द्रनाथ टैगोर विद्यालयी शिक्षा की सार्थकता, उसके समाज सापेक्षहोने में मानते थे। उनका विचार है कि जहाँ विद्यालय अपने चारों ओर के समाज के साथ इस तरह घुल-मिल नहीं पाये हैं, जो बाहर से समाज के ऊपर बरबस लाद दिये गए हैं, वे शुष्क और निर्जीव होते हैं।
उन्होंने विद्या के दो विभाग माने हैं - एक ज्ञान का, दूसरा व्यवहार का। वस्तुत: औपचारिक ढंग की शिक्षा, ज्ञान से सम्बंधित है जबकि जीवन के साथ उसकी सम्बद्धता उसे व्यवहारिक बनाती है। गुरुदेव ने शिक्षा पर चिंतन करते हुए अनेक स्थलों पर सैद्धांतिक और व्यवहारिक शिक्षा में तालमेल की बात कही है और शिक्षा को व्यवहारिक जीवन से जुड़ा होना आवश्यक बताया है। विद्यालय और विद्यालयी शिक्षा को जीवन से जोड़कर देखने के पीछे उनकी सुचिंतित विचाराधारा थी जो मनुष्य को विश्व-जीवन और उससे आगे ले जाती है। उनके शब्दों में व्यैक्तिक जीवनसे सामुदायिक जीवन में, सामुदायिक जीवन से विश्वजीवन में और विश्व-जीवन से अनंत की ओर बढ़ना ही आत्माकी स्वाभाविक प्रगति है । इस तरह उनके चिंतन में `सा विद्या या विमुक्ये´ को अलग ढंग से समझाने की चेष्टाकी गयी है।
निश्चय ही आज की शिक्षा-प्रणाली में शिक्षा के इस व्यापक उद्देश्य को अनदेखा कर दिया गया हैक्योंकि आज की शिक्षा-व्यवस्था विद्यार्थी को मुक्त करने के स्थान पर उसे अनेक प्रकार के बंधनों में कैद करतीहै। बंधनों में पड़कर मनुष्य, मनुष्यता के स्तर से बहुत नीचे गिर जाता है। यह स्थिति इस बात की ओर संकेत करती है कि ऐसे विद्यालयों में इस बात को भुला दिया जाता है कि शिक्षा का उद्देश्य ही मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाना है। इसके लिए उन्होंने इस बात की आवश्यकता पर बल दिया कि विद्यार्थियों को मनुष्य के संपर्क में आना चाहिए क्योंकि इसी से उसका सच्चा मनुष्य जाग्रत होता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को काफी पहले अनुभव कर लिया था कि एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में बड़ा अंतर है। इस तरह वे प्रकारांतर से ऐसी शिक्षा की आवश्यकता पर बल दे रहे थे जो विद्यार्थी को उसकी निजता में देखते हुए उसके समूचे व्यक्तित्व के विकास में योग दे सके । उन्होंने विद्यालयों में बच्चों को उपेक्षित स्थिति में देखकर काफी क्षोभ व्यक्त किया।
बच्चों के प्रति व्यवस्था के उपेक्षापूर्ण रवैये को उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण कहानी `तोते की पढ़ाई´ में प्रतीक औरव्यंग्य रूप में प्रस्तुत करने की सफल चेष्टा की है। तोते की पढ़ाई का प्रबंध राजा करता है और इसके लिए तमामलोगों की व्यवस्था करता है, सारे संसाधन जुटाता है और तमाम तामझामके बीच तोते को पिंजडे़ में कैद करके रखा जाता है। सारे आयोजन उभरकर महत्वपूर्ण हो जाते हैं और वह तोता जिसे केन्द्र में रखा जाना अपेक्षित था, घुटन के कारण विक्षिप्तता के कगार पर पहुँच गया और अंतत: उसकी मृत्यु हो जाती है। कहानी के अंत में राजाके भतीजे, उन्हें बताते हैं कि पक्षी की शिक्षा पूरी हो गयी।
इस कहानी में कोरे पुस्तकीय ज्ञान की निर्थकता विद्यार्थीको शिक्षा देने के नाम पर ढेर सारे खर्चीले आडंबर और अंत में विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को कुंठित कर देने वालेमाहौल पर कटाक्ष किया गया है। इस तरह पारंपरिक शिक्षा-प्रणाली की प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिन्ह लगायागया है। इस कहानी में प्रकारांतर से विद्यार्थी - केंद्रित शिक्षा की अनदेखी करने के दुष्परिणामों की ओर संकेत किया गया है।
(क्रमशः जारी......)
आज तो निश्चित ही शिक्षा एक फलती फूलती व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है. गुरुदेव के विचारों से अवगत कराने का आभार.
ReplyDeleteसुब्रमन्यम जी ठीक ही कह रहे हैं। अब न गुरु बचे गुरुकुल। शिक्षा व्यापार बन गई है। ऐसे में गुरु रवींद्रनाथ जी के विचार परोस कर आपने हम जैसे पाठकों पर उपकार ही किया है।
ReplyDeleteहमारे यहाँ एक बिजनिस स्कूल खुला है उसका मालिक शायद आठवा फ़ैल है . लेकिन पैसा है विद्या बेच रहे है पैसा कमा रहे है ,
ReplyDeleteभाई प्रवीण जी ,
ReplyDeleteगुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर जी के शिक्षा के
प्रति व्यक्त विचारों को पाठकों तक पहुचने के लिए
साधुवाद .अभी पिछले जून में ही मैंने तोता कहानी
का नाट्य रूपांतर किया था .उसका मंचन भी लखनऊ में हुआ .
तोता कहानी तो हमारी अज की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का असली चेहरा दिखती है
हेमंत कुमार
लेख बढ़िया लगा। शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण काम के लिए हमारे पास संसाधन नहीं होते, जगह नहीं होती, कमरे नहीं होते, न ही सबसे कुशल व बुद्धिमान लोग प्रायः इस पेशे में आते हैं। कुल मिलाकर बच्चे बंदी ही बन जाते हैं। उपाय भी बताइए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
यही तो अफ़सोस की बात है कि शिक्षा के क्षेत्र मे सरकार को जो करना था वो किया ही नही गया।
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ReplyDeleteबहुत सुंदर और सामयिक विचार रखे आपने. ये समस्या तो पूरे देश मे फ़ैल गई है. आज मकसद ही पैसा कमाना रह गया है, चाहे किसी भी क्षेत्र मे क्युं ना हो?
ReplyDeleteबाकी मास्टरनी जी की टाईपिंग एकदम परफ़ेक्ट है जी. हमारी तरफ़ से घणा धन्यवाद और शाबासी दे दिजियेगा.
रामराम.
ReplyDeleteछोड़ो कल की बातें..
यह स्वप्नलोक की बातें हैं..
जो गुरुदेव टैगोर के अन्य लेख भी हैं,
मैकाले शिक्षापद्धति की पुरजोर वकालत करते हैं,
क्या सही है.. क्या गलत ?
टिप्पणी न करूँ तो बेहतर ही है ।
शिक्षा एक उपभोक्ता प्रयोज्य से अधिक कुछ न रह गया है ।
छोड़ो कल की बातें..
बहुत ही अच्छा विषय लिया है आज आप ने--यह स्थिति हर जगह है..
ReplyDeletegurudev ki baaten aaj bhi har tarah se sahi hain.
'tote ki kahani bilkul aak kal ke bachchon par sahi baithti hai---bachhon se abhibhavkon ki apekshayen itni ho gayi hain--kisey dosh den??shiksha pranali ko badhtey competitions ko ya schools ko??
बहुत ही अच्छा लेख है.
'private tuition oriented एजूकेशन' है आज कल बस!कुछ achchey शिक्षक या विद्यालय भी हैं..मगर बहुत कम!
आज शिक्षा का एक ऐसा व्यवसाय बन गया है, जिसमें शत प्रतिशत सफलता की गारन्टी है। रवीन्द्र जी के विचारों को हम तक पहुंचाने का शुक्रिया।
ReplyDeleteप्रवीण जी आप का लेख हमेशा शिक्षा से भरपूर होता है, पता नही यह लेख केसे बच गया पढने से,
ReplyDeleteआज भारत मै, आज ही नही जब से मेने होश सम्भाला है, तभी से देख रहा हुं,यह सब लेकिन अब यह बहुत ज्यादा हो गया है, शिक्षा जो मुफ़त मिलनी चाहिये,अब उस की भी दुकान दारी,यह सब पढ कर दिल दुखता है, चलिये अब जल्दी से अपनी उगली ठीक कर ले.
धन्यवाद
yes gurudev ji ki baten aj ke samaj par satik baithati hai ....... aj kasamaj sirf money ko important,s deta hai
ReplyDeletemanu singh