कुछ जमे जमाये फार्मूले को तोड़ने की जरूरत

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हाल के वर्षों में प्राथमिक स्तर के बच्चों के लिए पूरक पाठ्य सामग्री के रूप में चित्रात्मक पुस्तकों के प्रकाशन में गैर सरकारी संस्थाओं ने काफी रुचि दिखाई है। इसके फलस्वरूप बच्चों के लिए नई-नई चित्रात्मक सामग्री निर्मित की जा रही है और बच्चों तक पहुंचाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। इसके साथ ही विभिन्न तरह की कार्यशालाओं के आयोजन की शुरुवात भी हुई है, जिनमें बच्चों की पुस्तकों व उनके लिए लेखन से जुड़े पहलुओं पर चर्चा होती रही है। इससे बच्चों की पुस्तकों व उनके लिए लेखन संबंधी मुद्दों पर एक-दूसरे के विचार जाने बच्चों की किताबों में क्या-क्या हो ।


अच्छी किताब के संकेतक यूं तो अच्छी किताब को किसी खाके में बांध पाना थोड़ा नहीं बहुत मुश्किल काम काम है।सर्वप्रथम इस मुद्दे को समझने का प्रयास किया जाय कि बच्चों के लिए अच्छी पुस्तक के क्या माने हैं? - बच्चों की किताबों में काफी चित्र हों, उनके आस- पास का परिवेश हो, कहानी कविताओं में पशु-पक्षियों के चरित्र हों, कहानी का अंत सुखद हो, अक्षरों का आकार बड़ा हो आदि। बाल साहित्य में बच्चे की स्वतंत्र छवि का उभरनाभ जरूरी है जिसमें उसकी अपनी बात, अपनी सोच, अपनी कल्पनाशीलता व तार्किकता दिखाई दे। इस प्रकार बच्चों की किताबों में बच्चों की स्वयं निर्णय लेने की क्षमता, अपना तर्क रखने की क्षमता आदि आंतरिक मूल्य भी दिखने चाहिए।


इसका उदाहरण प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह' में दिखाई देता है। इस कहानी में जहां एक बच्चे की अपनी दादी के प्रति संवेदना उभर कर आती है, वहीं दूसरी तरफ यह बात भी सामने आती है कि हामिद इस कहानी में स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकने वाली स्थिति पर भी कायम रहता है। कहानी में हामिद चिमटा लेने के पक्ष में अपने तर्क बड़ी मजबूती से रखता है और अपनी दादी के लिए चिमटा खरीद लेता है, जबकि उसके साथी विभिन्न प्रकार के खिलौने खरीदते हैं। यह बच्चों के लिए कहानी का एक ठोस आंतरिक मूल्य है, इसे समझने कीआज के परिवेश में सबसे अधिक जरूरत है।

ऐसा प्रतीत होता है कि बाल साहित्य में बच्चों की छवि को समझना अच्छी किताब का एक बढ़िया संकेतक हो सकता है। आमतौर पर बाजार में उपलब्ध विभिन्न पुस्तकों में यह देखा जाता है कि कहानी के पात्र तो बच्चे व पाश-पक्षी हो सकते हैं लेकिन वे बड़ों की सोच के आधार पर अपने क्रियाकलाप करते हैं, अपना तर्क रखते हैं। बच्चे इन्हें पढ़ते हुए कहीं-न-कहीं अपनी छवि को देखते हैं, अपने अनुभव से जोड़ते हुए उसमें आनंद पाते हैं। चित्रों का महत्व बाल साहित्य में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है लेकिन इसका महत्व इस रूप में है कि चित्र गत्यात्मक होने चाहिए जिससे बच्चों को लगे कि इनमें कुछ घटित हो रहा है । अधिकतर पुस्तकों में बच्चों के चरित्र गढ़े हुए होते हैं और वे एक बड़े व्यक्ति के नजरिये से सोचते या करते हैं। इससे कहानियां एक ही सपाट ढर्रे पर चलती दिखाई पड़ती हैं और उनमें बच्चों का अपना कोई अनुभव नहीं दिखाई पड़ता।


उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में बाल-साहित्य में चले आ रहे कुछ जमे जमाये फार्मूले को तोड़ने की जरूरत है - चाहे वह भाषा के स्तर पर हो या विषयवस्तु के स्तर पर। भाषा के स्तर पर यह कहा जाता है कि बच्चों के लिए सरल वाक्य हों। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि भाषा में बच्चों के स्थानीय परिवेश के के कई शब्द सहजता व सरलता से आते रहें ।इस बात को भी ध्यान में रखने की आवयकता है कि बच्चों के लिए भाषा बनावटी न हो। अगर सहज रूप से इस्तेमाल किए जाएं तो कठिन शब्दों को भी बच्चे कहानी के संदर्भ द्वारा अनुमान लगाकर समझ सकते हैं।

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  1. इसमें दो राय नहीं हैं कि अपने परिवेश के साथ -बाहर की दुनिया को जानने समझने के लिए सेतु की तरह होती हैं किताबें। कैसे पता लगाएं कि कौन सी पुस्तक बच्चों के लिए `खुल जा सिमसिम` बन उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित कर सकेगी । ऐसा कोई बना बनाया नुस्खा भी नहीं है जिसके आधार पर बच्चों के लिए किताबें चुनी जा सकें । विद्यालयों के लिए पुस्तकें चुनते समय उम्रगत ख़ासियतों का ध्यान रखते हुए पर्याप्त संख्या में पुस्तकें चुनी जनि चाहिए , ताकि बच्चों तक तरह-तरह की पुस्तकें पहुंच सकें ।

    ऊर्जा और सक्रियता से भरपूर, कुछ बनाने, जोड़ने की ओर ले जाने वाली क्रियात्मक पुस्तकें बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ावा दे सकेंगी।

    आशा है की
    कुछ अपने विचार जोड़कर आप श्री-वृदि कर पाएंगे !!!!!!

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  2. बहुत सार्थक चिंतन, हामिद के कई कथन दिमाग में नाच गए. :)

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  3. बाल साहित्‍य पर चर्चा देखकर अच्‍छा लगा। वैसे बाल साहित्‍य पर जब भी बात चलती है, मामला प्रेमचंद की ईदगाह पर आकर अटक जाती है। आज का बालसाहित्‍य इससे कहीं आगे जा चुका है। लेकिन न तो वह पाठकों तक पहुंच पाता है और न ही कोर्स बनाने वाले नए साहित्‍य पर ध्‍यान देते हैं। मैंने व्‍यक्तिगत तौर पर 1998 में '21वीं सदी की बाल कहानियॉं' नामक पुस्‍तक का सम्‍पादन किया था, जिसमें इसी प्रकार की 108 संग्रहीत हैं। बाल साहित्‍य जगत में तो वह पुस्‍तक काफी चर्चित हुई, किन्‍तु बाल साहित्‍य के बाहर वह पुस्‍तक नहीं पहुंच सकी। इसी विषय पर मैंने उत्‍तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'उत्‍तर प्रदेश' में एक आलेख लिखा है 'तितली जैसे पंख लगाकर उडती बाल कहानी', जो नवम्‍बर अंक में प्रकाशित हुआ है। इसी प्रकार का एक आलेख प्रकाश मनु जी ने 'साहित्‍य अमृत' के नवम्‍बर अंक में भी लिखा है। अगर कहीं से उपलब्‍ध हो सके, तो इन्‍हें जरूर पढें, आपको प्रसन्‍नता होगी कि आजका बालसाहित्‍य कहॉं पर है।

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  4. सही कहा - जमे जमाये फार्मूले तोड़ने की जरूरत है। पर इससे ज्यादा कह नहीं सकता मैं। बालकों से इण्टरेक्शन ही नहीं होता। उस दिन सत्यार्थमित्र वाले सिद्धार्थ जी मिलने आये थे। उनके बच्चों को देख लगा कि जमाने बाद बच्चों से मिल रहे हैं।
    पोस्ट जमी।

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  5. बाल साहित्य के उत्तरोत्तर सुधार पर सतत चिंतन एवं कार्यवाही होने चाहिए !

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  6. मैंने कुछ किताबें देखि हाल में चौथी पांचवी की एनसीईआरटी और काफ़ी कुछ बदला हुआ देखा. मुझे लगता है कि बदलाव हो रहा है... एनी पाठ्यक्रम कि पुस्तकों का तो नहीं पता. ये परिवर्तन तो जरूरी है.

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  7. प्रवीण जी, बहुत सही कहा है आपने... हम तो कब से आपके फॉलोअर बनना चाह रहे थे, लेकिन आपने ऑप्शन ही ऑन नहीं किया था.. :)

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  8. जमे जमाए फ़ॉर्मूलों ने जड़ता से पकड़ रखा है |
    उच्च कोटि की दलीलें |

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  9. 'चित्रों का महत्व बाल साहित्य में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है लेकिन इसका महत्व इस रूप में है कि चित्र गत्यात्मक होने चाहिए -'

    भाषा के विषय में भी बिल्कुल सही लिखते हैं.

    वैसे पिछले दो साल से एनसीईआरटी /सीबीऍसई की किताबों के रूप और सज्जा में काफी परिवर्तन आया है.

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Today | 13, June 2025