पुस्तकें रटने के बजाए बच्चों को सच्चरित बनाना अधिक आवश्यक है, यह मानकर गाँधी उनके चाल–चलन और मन के विकास पर अधिक यान देते थे। गाँधी इसको भूले नहीं थे कि अपनी छात्रावस्था में मजबूरन बहुत–सी पुस्तकों की रटाई के कारण पढ़ाई कैसी नीरस हो गई थी। इसलिए वे कभी पुस्तक लेकर नहीं पढ़ाते थे। वह किताबी रटाई से विद्यार्थियों के दिमाग के स्वाभाविक विकास को कुंठित नहीं करना चाहते थे। वह चाहते थे कि पढ़ाई विद्यार्थियों को भार न लगे, बल्कि उन्हें आनंद दे। महज लिखना–पढ़ना और हिसाब लगाना सीख जाने को या किताबी ज्ञान प्राप्त कर लेने को वह शिक्षा नहीं मानते थे।
गाँधी बराबर यह कोशिश करते थे कि बच्चे सभी कर्मों का आदर करें। रमजान के महीने में मुसलमान लड़कों के साथ हिंदू विद्यार्थी भी रोजे रखा करते थे। मुसलमान विद्यार्थी कभी–कभी हिंदू परिवारों में रहते और उन्हीं के साथ भोजन किया करते थे। वे सभी शाकाहारी थे। सभी एक ही जगह बैठकर एक ही प्रार्थना करते थे। सभी विद्यार्थियों को माली, भंगी, चमार, बढ़ई और रसोइए का काम सीखना पड़ता था। विद्यार्थियों के मन में कहीं जाति, धर्म और किसी काम को छोटा या बड़ा समझने का भाव न पैदा हो, इसलिए गाँधी सभी बच्चों को इकट्ठा करके गीता पाठ से लेकर जूतों की सिलाई तक खुद सिखाते थे। टालस्टाय बाड़ी और साबरमती आश्रम में गाँधी बच्चों को जूते गाँठना सिखाते थे।
सब बालक अपनी–अपनी मातृभाषा की पुस्तकें पढ़ते थे, टालस्टाय आश्रम में प्राथमिक विद्यार्थियों को गाँधी तमिल और उर्दू पढ़ाया करते थे। वह खुद भी गुजराती, मराठी, संस्कृत, हिंदी, उर्दू , तमिल, बांग्ला, अंग्रेषी, लैटिन और फ्रेंच जानते थे। विद्यार्थियों को हिंदी, उर्दू, तमिल और गुजराती पढ़ाई जाती थी। प्रतिदिन शाम को कीर्तन होता था और पियानों पर मसीही भजन गाए जाते थे। साबरमती आश्रम में भी यही शिक्षा-पद्दति अपनाई गई। विद्यार्थियों से किसी तरह की फीस नहीं ली जाती थी। विद्यार्थियों के अभिभावक, स्वेच्छा से आश्रम के कोश में दान देते थे। चार वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को आश्रम में ही रहना पड़ता था। बालकों को उनकी मातृभाषा के मध्यम से इतिहास, भूगोल, गणित और अर्थशास्त्रा पढ़ाया जाता था। संस्कृत, हिंदी और दक्षिण भारत की एक भाषा की शिक्षा अनिवार्य थी। उर्दू, बंगला, तेलुगु और तमिल भाषा का अक्षर–परिचय कराया जाता था तथा अंग्रेजी ऐच्छिक विषय था।
विद्यार्थियों को दिन में तीन बार बहुत ही सादा बिना मिर्च–मसाले का भी भोजन दिया जाता था और सादी–मोटी पोशाक पहननी पड़ती थी। स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार पर जोर दिया जाता था।
गाँधी बालक–बालिकाओं की सह–शिक्षा के समर्थक थे और वह कहते थे कि मैं लड़कियों को सात तालों में बंद करके रखने में विश्वास नहीं करता। लड़के लड़कियों को साथ पढ़ने और मिलने–जुलने का मौका देना चाहिये। यदि आश्रम में यदि कभी लड़के –लड़कियों में कोई अनुचित व्यवहार की घटना होती तो गाँधी प्रायश्चित के रूप में स्वयं उपवास करते थे।
आश्रम में कताई के साथ–साथ सिलाई-बुनाई भी सिखाई जाती थी। छोटे–छोटे बालकों को कोई ऐसी दस्तकारी सिखाई जाती, जिससे उनकी पढ़ाई का कुछ खर्च निकल आए। छुट्टी का कोई दिन नहीं था, किंतु अपना काम करने के लिए छात्राओं को सप्ताह में दो दिन में कुछ समय मिला करता था। जो विद्यार्थी मजबूत होते थे, वे वर्ष में तीन महीने के लिए पैदल घूमने के लिए\ निकलते थे। गुजरात विद्यापीठ मेंगाँधी बालकों को बाइबिल की कहानियाँ सुनाया करते थे और अंग्रेजी साहित्य के चुने हए अंश पढ़ाया करते थे।
गाँधी जी प्रचलित शिक्षा - पद्दति को बिल्कुल बदल देना चाहते थे। वह इसे केवल कुछ घरोंके बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि देश के करोड़ों सामान्य लोगों के लिए उपयोगी बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने लड़कों को किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं पढ़ाया। गाँधी अपने बच्चों को ऐसी महँगी शिक्षा नहीं देना चाहते थे जो सर्व-साधारण वेफ लिए उपयोगी न हो। इस कारण उनके लड़के और उनकी माँ मन–ही–मन दुखी रहते थे।
गाँधी ने अच्छी तरह जाँच लिया कि एक विदेशी भाषा सीखने में लड़के –लड़कियों का कितना समय नष्ट होता है, उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ती है और वे किस प्रकार धीरे - धीरे अपनी भाषा तथा साहित्य से उदासीन हो जाते हैं। विदेशी भाषा में विदेशी शिक्षा पाकर अपने ही घर में वे परदेशी हो जाते हैं। ऊँची शिक्षा से भी विद्यार्थियों में आत्मविश्वास नहीं आ पाता और वे यह तय नहीं कर पाते कि पढ़ाई खत्म कर लेने के बाद क्या करें। गाँधी चाहते थे कि देश की उच्च शिक्षा ऐसी हो जिसमें देश के अनेक वर्गों की परंपराओं और संस्कृतियों का मेल हो तथा नई दुनिया का ज्ञान भी हो।
गाँधी बराबर यह कोशिश करते थे कि बच्चे सभी कर्मों का आदर करें। रमजान के महीने में मुसलमान लड़कों के साथ हिंदू विद्यार्थी भी रोजे रखा करते थे। मुसलमान विद्यार्थी कभी–कभी हिंदू परिवारों में रहते और उन्हीं के साथ भोजन किया करते थे। वे सभी शाकाहारी थे। सभी एक ही जगह बैठकर एक ही प्रार्थना करते थे। सभी विद्यार्थियों को माली, भंगी, चमार, बढ़ई और रसोइए का काम सीखना पड़ता था। विद्यार्थियों के मन में कहीं जाति, धर्म और किसी काम को छोटा या बड़ा समझने का भाव न पैदा हो, इसलिए गाँधी सभी बच्चों को इकट्ठा करके गीता पाठ से लेकर जूतों की सिलाई तक खुद सिखाते थे। टालस्टाय बाड़ी और साबरमती आश्रम में गाँधी बच्चों को जूते गाँठना सिखाते थे।
सब बालक अपनी–अपनी मातृभाषा की पुस्तकें पढ़ते थे, टालस्टाय आश्रम में प्राथमिक विद्यार्थियों को गाँधी तमिल और उर्दू पढ़ाया करते थे। वह खुद भी गुजराती, मराठी, संस्कृत, हिंदी, उर्दू , तमिल, बांग्ला, अंग्रेषी, लैटिन और फ्रेंच जानते थे। विद्यार्थियों को हिंदी, उर्दू, तमिल और गुजराती पढ़ाई जाती थी। प्रतिदिन शाम को कीर्तन होता था और पियानों पर मसीही भजन गाए जाते थे। साबरमती आश्रम में भी यही शिक्षा-पद्दति अपनाई गई। विद्यार्थियों से किसी तरह की फीस नहीं ली जाती थी। विद्यार्थियों के अभिभावक, स्वेच्छा से आश्रम के कोश में दान देते थे। चार वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को आश्रम में ही रहना पड़ता था। बालकों को उनकी मातृभाषा के मध्यम से इतिहास, भूगोल, गणित और अर्थशास्त्रा पढ़ाया जाता था। संस्कृत, हिंदी और दक्षिण भारत की एक भाषा की शिक्षा अनिवार्य थी। उर्दू, बंगला, तेलुगु और तमिल भाषा का अक्षर–परिचय कराया जाता था तथा अंग्रेजी ऐच्छिक विषय था।
विद्यार्थियों को दिन में तीन बार बहुत ही सादा बिना मिर्च–मसाले का भी भोजन दिया जाता था और सादी–मोटी पोशाक पहननी पड़ती थी। स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार पर जोर दिया जाता था।
गाँधी बालक–बालिकाओं की सह–शिक्षा के समर्थक थे और वह कहते थे कि मैं लड़कियों को सात तालों में बंद करके रखने में विश्वास नहीं करता। लड़के लड़कियों को साथ पढ़ने और मिलने–जुलने का मौका देना चाहिये। यदि आश्रम में यदि कभी लड़के –लड़कियों में कोई अनुचित व्यवहार की घटना होती तो गाँधी प्रायश्चित के रूप में स्वयं उपवास करते थे।
आश्रम में कताई के साथ–साथ सिलाई-बुनाई भी सिखाई जाती थी। छोटे–छोटे बालकों को कोई ऐसी दस्तकारी सिखाई जाती, जिससे उनकी पढ़ाई का कुछ खर्च निकल आए। छुट्टी का कोई दिन नहीं था, किंतु अपना काम करने के लिए छात्राओं को सप्ताह में दो दिन में कुछ समय मिला करता था। जो विद्यार्थी मजबूत होते थे, वे वर्ष में तीन महीने के लिए पैदल घूमने के लिए\ निकलते थे। गुजरात विद्यापीठ मेंगाँधी बालकों को बाइबिल की कहानियाँ सुनाया करते थे और अंग्रेजी साहित्य के चुने हए अंश पढ़ाया करते थे।
गाँधी जी प्रचलित शिक्षा - पद्दति को बिल्कुल बदल देना चाहते थे। वह इसे केवल कुछ घरोंके बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि देश के करोड़ों सामान्य लोगों के लिए उपयोगी बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने लड़कों को किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं पढ़ाया। गाँधी अपने बच्चों को ऐसी महँगी शिक्षा नहीं देना चाहते थे जो सर्व-साधारण वेफ लिए उपयोगी न हो। इस कारण उनके लड़के और उनकी माँ मन–ही–मन दुखी रहते थे।
गाँधी ने अच्छी तरह जाँच लिया कि एक विदेशी भाषा सीखने में लड़के –लड़कियों का कितना समय नष्ट होता है, उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ती है और वे किस प्रकार धीरे - धीरे अपनी भाषा तथा साहित्य से उदासीन हो जाते हैं। विदेशी भाषा में विदेशी शिक्षा पाकर अपने ही घर में वे परदेशी हो जाते हैं। ऊँची शिक्षा से भी विद्यार्थियों में आत्मविश्वास नहीं आ पाता और वे यह तय नहीं कर पाते कि पढ़ाई खत्म कर लेने के बाद क्या करें। गाँधी चाहते थे कि देश की उच्च शिक्षा ऐसी हो जिसमें देश के अनेक वर्गों की परंपराओं और संस्कृतियों का मेल हो तथा नई दुनिया का ज्ञान भी हो।
अच्छी और रोचक चर्चा।
ReplyDeleteरोचक लगा यह लेख ..शुक्रिया
ReplyDeleteइस चिट्ठे को आज सारथी की बाईं बगलपट्टी पर जोड दिया है. कृपया एक बार जांच कर देखें!!
ReplyDelete-- शास्त्री
-- हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
आज जब शिक्षा नीति तैयार होती है तो बापू की सोच को शायद देखा नहीं जाता है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteसारगर्भित लेख।
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