प्राथमिक विद्यालयों में छात्र–अध्यापक अनुपात

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शिक्षा की प्रक्रिया में विद्यार्थी की केंद्रीय भूमिका है इसमें कोई संदेह नहीं। इस प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान भी उतना ही महत्वपूर्ण है। प्रत्येक विद्यालय में कम से कम कितने शिक्षक हों? एक शिक्षक कितने विद्यार्थियों को पढ़ाए? यह गम्भीर चिंतन मनन का विषय है। हमारे प्राथमिक विद्यालयों में वास्तविक परिस्थितियाँ क्या बताती हैं और प्राथमिक स्तर पर अध्यापक संख्या क्या हो ताकि सीखने–सिखाने की प्रक्रिया सुचारू रूप से च सके , इन्हीं मुद्दों पर विचार प्रस्तुत हैं इस लेख में।

जहाँ कहीं शिक्षा की चर्चा होती है तो सैद्धांतिक रूप से तीन बिंदुओं की बात की जाती है–शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी। इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने वालों के लिए शिक्षा जितनी महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान करने वाला अर्थात् शिक्षक भी। यह तो रहा सैद्धांतिक सत्य किंतु प्रश्न यह है कि विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या कितनी हो? इस विषय पर गंभीर चिंतन, मनन एवं मंथन की आवश्यकता है। प्राय: तीन तरह की बातें देखने–सुनने को मिलती हैं। प्रथम कि अध्यापकों की संख्या कक्षाओं की संख्या के अनुरूप होनी चाहिए, द्वितीय कि प्रति चालीस छात्रों पर एक अध्यापक और तृतीय कि प्रति पच्चीस छात्रों पर एक अध्यापक नियुक्त होना चाहिए।

किन्तु
एकल अध्यापकीय व्यवस्था वाले विद्यालयों में यह बात कैसे हो सकती है? क्योंकि अध्यापक महोदय को यह भी याद रखना है कि चार अन्य कक्षाएं भी उनका इंतजार कर रहीं हैं। सभी कक्षाओं को एक साथ बैठाकर पढ़ाया जाना भी ज्यादा समय तक व्यवहारिक नहीं है। क्योंकि पाँचों कक्षाओं में अध्ययनरत शिक्षार्थी स्वाभाविक रूप से अलगअलग शारीरिक एवं मानसिक योग्यता वाले हैं। अन्य विभागीय एवं राष्ट्रीय कार्यों के संपादन हेतु भी समय की आवश्यकता है।

स्तुत: अध्यापकों की संख्या छात्रों की संख्या पर नहीं वरन् कक्षाओं अथवा विषयों के अनुरूप होनी चाहिए। वर्तमान में प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक दोनों ही प्रकार के विद्यालयों में विषयों की संख्या समान हैकिंतु उच्च प्राथमिक विद्यालयों में जहाँ कम से कम तीन और अधिक से अधिक पांच शिक्षकों का मानक है प्राथमिक विद्यालयों में कहीं दो और कहीं एक मात्र अध्यापक ही कार्यरत है। ऐसी स्थिति में शिक्षण कार्य कितना प्रभावी हो सकता है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। भय का वातावरण उत्पन्न करके बच्चों को कुछ मूलभूत बातें रटायी तो जा सकती हैं किंतु यह तो बच्चों के विकास के बजाय विनाश का ही कार्य अधिक करेगा।
शासन
के पास कक्षाओं या विषयों के अनुरूप शिक्षकों की नियुक्ति न कर सकने के पक्ष मे इसके व्यवसाय होने का तर्क तो मौजूद है किंतु दूसरी ओर छोटे से छोटे गांव में जहाँ की आबादी अत्यंत न्यून है प्राथमिक विद्यालयों का खुलना आवश्यकता–सी हो गयी है। यद्यपि उत्तराखंड सरीखे पहाड़ी राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थिति में प्राथमिक विद्यालयी स्तर के बच्चे का दूर जा पाना सम्भव नहीं है किंतु चार–पाँच निकटवर्ती गाँवों के मध्य में एक प्राथमिक विद्यालय स्थापित कर पर्याप्त संख्या में अध्यापकों की व्यवस्था की जा सकती है। अदूरदर्शिता के कारण खोले गए ऐसे विद्यालय पर्याप्त छात्रा संख्या जुटा पाने के कारण आज बन्द होने की कगार पर हैं। विगत दिनों दस से कम संख्या वाले विद्यालयों को बन्द करने सम्बन्धी बात अभी तक भी अमल में नहीं पायी है। विद्यालयों की स्थापना ऐसे केंद्रीय स्थलों पर की जाय जहाँ अधिकांश छात्र पहुँच सके साथ ही संसाधनों अध्यापकों की संख्या भी पर्याप्त हो।

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1Comments
  1. १:१५ में अध्यापक और बच्चे आदर्श हैं मेरे विचार से।
    खेल कूद और पठन का भी उचित अनुपात होना चाहिये।
    (मैं बहुत थ्योरिटिकल बात कर रहा हूं?!)

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