गाँधी जी के विचारों पर करें पुनर्विचार

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कुछ मुद्दों पर गाँधी जी के विचार रख रहा हूँ। जाहिर है की वह शिक्षा के ही क्षेत्र से ही जुड़े होंगे
सच्चा स्नातकोत्तर कौन?

आप जिन परिस्थितियों में पढ़ते हैं उनमें ऐसी शिक्षा मिलती है कि मन में मनुष्य का डर रखना पड़े। परन्तु मैं तोउसे सच्चा एम.. कहूंगा जिसने मनुष्य का डर छोड़कर ईश्वर का डर रखना सीखा हो। आपमें इतना बल जायकि आजीविका के लिए आपको किसी के सामने हाथ फैलाना पड़े, तब आपकी शिक्षा ठीक कहलायेगी जब मनमें यह विचार घर कर लें कि जब तक मेरे हाथपैर सलामत हैं, तब तक आजीविका प्राप्त करने के लिए मुझे कहींभी सिर नहीं झुकाना है, आपकी शिक्षा तभी ठीक कहलायेगी।

अध्यापक बनाम पुस्तक

पाठ्यपुस्तकों के सम्बन्ध में समयसमय पर बड़ीबड़ी बातें सुनी जाती हैं, पर उनकी मुझे कभी आवश्यकतानहीं पड़ी। मुझे याद नहीं कि जो पुस्तकें थीं वे भी बहुत काम में लाई गई हों। हर बालक को अधिक पुस्तकें दिलानेकी मुझे आवश्यकता नहीं मालूम हुई। मुझे ऐसा लगा है कि विद्यार्थी की पाठ्यपुस्तक शिक्षक को ही होना चाहिए।मेरे शिक्षकों ने पुस्तकों से जो कुछ मुझे पढ़ाया, वह मुझे थोड़ा ही याद है। जिन्होंने मुझे जबानी सिखाया, उनकाबताया हुआ पाठ मुझे आज भी याद है। बच्चे जो कुछ आंख से ग्रहण करते हैं उसके बजाय कान से सुना हुआ कममेहनत से बहुत अधिक ग्रहण कर सकते हैं। मुझे याद नहीं कि मैंने बालकों को एक भी पूरी पुस्तक पढ़ाई हो।लेकिन मैंने बहुतसी पुस्तकों में से जो कुछ हजम किया था उसे उनको अपनी भाषा में बताया था। मैं मानता हूंकि वह उन्हें आज भी याद होगा। पुस्तकों से पढ़वाया हुआ याद रखने में उन्हें कष्ट होता था। मैं उन्हें जोकुछसुनाता था उसे वे मुझे उसी समय फिर सुना देते थे। पढ़ने से वे ऊब जाते थे। सुनाने में जब मैं अपनी थकावट केमारे या और किसी कारण से सुस्त और बेमन नहीं होता था तब वे रस लेकर सुनते थे। उनके दिल में जो प्रश्नउठते थे, उन्हें हल करने में मुझे उनकी ग्रहणशक्ति का अनुमानलग जाता था।

गुरुभक्ति

मैं गुरुभक्ति को माननेवाला हूं। मगर हरएक शिक्षक गुरु नहीं हो सकता। गुरुचेले का नाता आयात्मिक औरअपनेआप पैदा होता है। वह बनावटी नहीं होता; वह बाहर के दबाव से पैदा नहीं होता। ऐसे गुरु आज भीहिन्दुस्तान में मौजूद हैं। (यह चेतावनी देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यहां मैं मोक्ष दिलानेवाले गुरु का जिक्र नहीं करता।) ऐसे गुरु की खुशामद हो ही नहीं सकती। ऐसे गुरु के लिए आदर स्वाभाविक ही होता है; गुरु का प्रेम भीवैसा ही होता है। इसलिए एक देने को और दूसरा लेने को हमेशा तैयार ही रहता है। वैसे मामूली ज्ञान तो हम सभीसे लेते हैं। एक बढ़ई से, जिसके साथ मेरा कोई भी सम्बन्ध हो, उसके दुर्गुण या बुराइयां जानते हुए भी मैं बहुतकुछ ले सकता हूं। उससे मैं जैसे दुकानदार के यहां से सौदा खरीदता हूं, वैसे ही बढ़ईगिरी का ज्ञान खरीद लेता हूं।हां, यहां भी एक खास तरह की श्रद्धा जरूरी है। जिस बढ़ई से मैं बढ़ईगिरी का ज्ञान लेना चाहता हूं, उसके बढ़ईगिरीके ज्ञान के बारे में मुझे श्रद्धा हो तो वह ज्ञान मुझे नहीं मिल सकता। गुरुभक्ति दूसरी ही चीज है। जहां चरित्रबनाना शिक्षा का विषय है, वहां गुरुशिष्य का सम्बन्ध निहायत जरूरी है। और अगर वहां शुद्ध गुरुभक्ति हो, तोचरित्र बन नहीं सकता।

पाठ्य पुस्तकें शिक्षकों को यंत्रवत बना देती हैं

पाठ्यपुस्तकों के विषय में मैंने आवश्यकता से अधिक कहा है, पर इसके साथ चेतावनी भी देता हूँ ...हम जोपाठ्यपुस्तकें प्रकाशित कर लोगों के सामने पेश करें, वे ऐसी होनी चाहिए जिन्हें गरीब से गरीब बालक खरीदसकें। यदि मेरा बस चले तो मैं बारह और चार पैसे की पुस्तक देना चाहता हूं। ...शिक्षक को तो मुंह से शिक्षा देनीचाहिए। शिक्षा पुस्तकों और पाठ्यपुस्तकों द्वारा नहीं दी जा सकती। जिन देशों में शिक्षा की पाठ्यपुस्तकों का ढेरलगा रहता है उन देशों के बालकों के दिमाग में कौन जाने क्या भरा रहता है। मेरी समझ से तो उनमें भूसा भरारहता है। इससे बालकों की विचारशक्ति शून्य हो जाती है। असंख्य बालकों के अनुभव से और अनेक शिक्षकों केसाथ संवाद के फलस्वरूप मेरा यह विचार बना है। आप दो पाठशालाओं की तुलना कीजिए। एक पाठशाला मेंअयापकों के पास बहुतेरी पाठ्यपुस्तकें हैं और दूसरी पाठशाला में अयापकों के पास एक भी पाठ्यपुस्तक नहींहै। दोनों प्रकार के शिक्षकों में सत्य तो हैं, किन्तु जिनके पास पाठ्यपुस्तक नहीं हैं वे जितना ज्ञान बालकों को देसकेंगी उतना ज्ञान वे शिक्षक नहीं दे सकेंगे जिनके पास पाठ्यपुस्तकें हैं। मैं बालकों के हाथों में पाठ्यपुस्तकनहीं देना चाहता। शिक्षक स्वयं यदि अपने लिए उन्हें पढ़ें तो भले ही पढ़ें। शिक्षकों के लिए हम जी चाहें जितनी भीपुस्तकें लिखें, किन्तु यदि हम बालकों के लिए पाठ्यपुस्तक लिखेंगे तो इससे शिक्षक एक यन्त्र बन जायेंगे; शिक्षकों में बुद्धि और स्वतंत्रता रह जायेगी। मैं शिक्षकों की गति को रोकना नहीं चाहता। मैं तो इतना ही चाहताहूं कि आप मेरे ये विचार भी मान लें। पाठ्यपुस्तकों के लेखक अनुभवी हैं। लोगों को जब तक उनकी आवश्यकताहै तब तक वे शौक से उन्हें लें। परन्तु किस दृष्टि से मैं यह कहता हूं, यह आप जान लें। आप पूछेंगे आपने शिक्षकका काम किया है? तो मैं कहूँगा हाँ , किया है। मेरे विचार की पुष्टि में मेराअनुभव भी है। मैंने शिक्षा के विषयपर खूब विचार किया है ।


साभार - संपूर्ण गाँधी विचार

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6Comments
  1. मैं गुरु–भक्ति को माननेवाला हूं। मगर हरएक शिक्षक गुरु नहीं हो सकता .....विचारणीय तथ्य, अच्छी पोस्ट।

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  2. @ सतीश पंचम जी!
    सच है ! हर अध्यापक गुरु नहीं हो सकता ......जैसे हर विद्यार्थी शिष्य नहीं हो सकता /

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  3. बापू ने सच्ची बात कही है, पर अब न तो वह गुरु ही रहे और न ही वह शिष्य.

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  4. @सुरेश चंद्र गुप्ता जी !
    सच कह रहे हैं आप ! सहमत हूँ मैं आपसे !
    पर अगर विचार करें तो पहले जैसा बचा ही क्या है अब ? न चावल में वह खुशबू , न टमाटर में वह खट्टापन / न वैसे इन्सान और न वैसे जानवर / बेहतर है की बदलते हालातों में हम भी बदलाव के लिए तैयार रहें /

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  5. आभार इन सदविचारों के लिये.

    गाँधी जयंति की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

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  6. @समीर जी !
    आपको भी गाँधी जी व शास्त्री जी के जन्म-दिन की बधाई/
    साथ में नवरात्रि व ईद की बधाई !

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