क्या स्कूलों और कालेजों में विज्ञानं विषय पढने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होती जा रही है ? इसका कोई जवाब है नहीं । बड़ी संख्या में मेधावी छात्रों में विज्ञानं विषय में दाखिला लेने के लिए जो होड़ व भीड़ दिखा करती है , वह प्रोफेसनल कोर्सेस की होड़ में अब नहीं दिख रहा है। पाठ्यक्रम में प्रवेश व कोर्स अधूरा छोड़ने की घटनाओं से विद्यार्थियों की संख्याओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस तरह बीच पाठ्यक्रम के ही अधूरा कोर्स छोड़ने वाले छात्रों की तादात लगातार बढती ही जा रही है । इससे विज्ञानं विषय में M.Sc. व Ph.D. के लिए प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का टोटा पड़ता जा रहा है । इससे यही सवाल उठ खड़ा होता है की क्या विज्ञान शिक्षण की मौजूदा प्रणाली वाकई में विद्यार्थियों के साथ न्याय कर रही है ।
कई जानकारों की राय में इन विद्यार्थियों में पहल करने व किसी नए मुद्दे में विश्लेषण की क्षमता का अभाव होता है जिससे ये प्रमुख शोध कम्पनीज में प्रवेश नहीं कर पाते हैं । ऐसा संभवतः , क्या निश्चित रूप से इसीलिए है कि भारत में अन्य तमाम विषयों की तरह विज्ञानं शिक्षण में भी रटने की प्रवत्ति को प्राथमिकता दी जाती है ,समझने व महसूस करने पर नहीं ; जिसे परीक्षा प्रणाली द्वारा और पुष्ट कर दिया जाता है ।
हमें इस बात पर विचार करना होगा कि आख़िर विज्ञान शिक्षण में किस तरह से सुधार किया जाए , कि विद्यार्थियों में विज्ञानं के प्रति रूचि बरक़रार रहे । वैसे यह संकट केवल हमारे देश कि कहानी ही नहीं है , बल्कि यह सर्व-व्यापी है । भारत के सन्दर्भ में नौकरी हासिल करना एक महान जरूरत समझी जाती है , जो शायद न्यायोचित भी होती है । इसके चलते कागजी योग्यता हासिल करना वास्तव में सीखने या समझने से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है , जिससे विज्ञानं शिक्षण कम अहमियत का शिकार हो जाता है । पाट्यक्रम का नवीनीकरण न होने से updation कि समस्या से जूझना पड़ता है। विज्ञानं विषय के शिक्षण में जब अध्यापन की बारी आती तो तो पारस्परिक संवाद के स्थान पर परिभाषाएं याद करा दिया जाता है । प्रयोग की स्थिति भी यही होती है , उत्तर - प्रदेश जैसे इलाकों में तो विज्ञानं के प्रयोग पिछले 5 वर्षों से बंद ही पड़े हुए हैं । परिणामतः छात्र समझने के बजाय रटने को ही प्राथमिकता देते दिखलाई पड़ते हैं ।
इसका समाधान यही होना चाहिए कि कुछ प्रोजेक्ट हो जो लगातार बदलते रहे , जिससे छात्र लगातार चिंतन द्वारा जाग्रत रहे । कहने का आशय यह है कि विज्ञानं शिक्षण को रूखे माहौल से निकाल कर रोचक व क्रियाशील शिक्षण के रूप में विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करना होगा ।
कई जानकारों की राय में इन विद्यार्थियों में पहल करने व किसी नए मुद्दे में विश्लेषण की क्षमता का अभाव होता है जिससे ये प्रमुख शोध कम्पनीज में प्रवेश नहीं कर पाते हैं । ऐसा संभवतः , क्या निश्चित रूप से इसीलिए है कि भारत में अन्य तमाम विषयों की तरह विज्ञानं शिक्षण में भी रटने की प्रवत्ति को प्राथमिकता दी जाती है ,समझने व महसूस करने पर नहीं ; जिसे परीक्षा प्रणाली द्वारा और पुष्ट कर दिया जाता है ।
हमें इस बात पर विचार करना होगा कि आख़िर विज्ञान शिक्षण में किस तरह से सुधार किया जाए , कि विद्यार्थियों में विज्ञानं के प्रति रूचि बरक़रार रहे । वैसे यह संकट केवल हमारे देश कि कहानी ही नहीं है , बल्कि यह सर्व-व्यापी है । भारत के सन्दर्भ में नौकरी हासिल करना एक महान जरूरत समझी जाती है , जो शायद न्यायोचित भी होती है । इसके चलते कागजी योग्यता हासिल करना वास्तव में सीखने या समझने से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है , जिससे विज्ञानं शिक्षण कम अहमियत का शिकार हो जाता है । पाट्यक्रम का नवीनीकरण न होने से updation कि समस्या से जूझना पड़ता है। विज्ञानं विषय के शिक्षण में जब अध्यापन की बारी आती तो तो पारस्परिक संवाद के स्थान पर परिभाषाएं याद करा दिया जाता है । प्रयोग की स्थिति भी यही होती है , उत्तर - प्रदेश जैसे इलाकों में तो विज्ञानं के प्रयोग पिछले 5 वर्षों से बंद ही पड़े हुए हैं । परिणामतः छात्र समझने के बजाय रटने को ही प्राथमिकता देते दिखलाई पड़ते हैं ।
इसका समाधान यही होना चाहिए कि कुछ प्रोजेक्ट हो जो लगातार बदलते रहे , जिससे छात्र लगातार चिंतन द्वारा जाग्रत रहे । कहने का आशय यह है कि विज्ञानं शिक्षण को रूखे माहौल से निकाल कर रोचक व क्रियाशील शिक्षण के रूप में विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करना होगा ।
आपने सही लिखा है। विज्ञान में रूचि बढ़ाने के लिए विज्ञानं शिक्षण को रूखे माहौल से निकाल कर रोचक व क्रियाशील शिक्षण के रूप में विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करना होगा ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी और ज़रूरो सवाल उठाया hai आपने.
ReplyDeleteघर पर कई कामों का निबटारा करने वाली और अपने श्रम और उर्जा खपा न वाली इन औरतों के योगदान को हम अक्सर अनदेखी कर जाते हैं.