बच्चों के साथ हम शिक्षकों के सम्बन्ध

7
शिक्षक का च्चों के प्रति स्नेह एंव शिक्षण कार्य के प्रति समर्पण प्रत्यक्ष रूप से बच्चों एवं जन समुदाय पर सकारात्मक प्रभाव डालता है इसके विपरीत, तम्बाकू खाने, शिक्षण के समय अखबारपढ़ने, बुनाई करने आदि कार्यों का अप्रत्यक्ष बुरा प्रभाव पड़ता है।
शिक्षक की अपने बच्चों के बारे में क्या मान्यतायें और विश्वास है , यह सिखाने के तरीकों तथा अपने छात्रों से अपेक्षाओं को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं। बच्चों में जिज्ञासा पैदा कर हम उनका सीखना आसान कर सकते हैं। उनके अनुभव के आधार पर, रुचियों का ध्यान रखते हुए नवीन जानकारियों एवं अनुभवों को सहज रूप में जोड़ सकते हैं। उन्हें अभिव्यक्ति का पर्याप्त अवसर देकर उनकी कल्पनाशीलता एवं सृजनशीलता को सकारात्मक दिशा दे सकते हैं। तब हम पायेंगे कि हमारा काम आसान होता जा रहा है।
शिक्ष के लिये यह संभव है कि वह पता कर सके कि बच्चे ने गलती क्यों की। शिक्षक को बच्चे एवं समस्या को अलग-अलग करके समझना चाहिये जिससे कि समस्या को चोट पहुंचे, बच्चे को नहीं। अक्सर हमारा संबंध अपने बच्चों के साथ सुगमकर्ता और दोस्त का नहीं होता है। इसीलिये हम बच्चों के साथ गतिविधियां करने में हिचकते हैं । हमारे समाज का परिवेश भी हमारी इस हिचक को तोड़ने में सहायक नहीं होता है। गतिविधियों के बारे में उपयुक्त समझ न होने के कारण अक्सर हम पाठों को पूरा कराने में लग जाते हैं और गतिविधियों को निरर्थक एवं समय की बरबादी मानते हैं । जबकि सच्चाई यह है कि गतिविधियों से विभिन्न दक्षताओं का विकास होता है। यह जरूरी
है कि करायी गयी गतिविधि उपयुक्त व संतुलित हो।

Post a Comment

7Comments
  1. पूर्णतः सहमत एवं अच्छा ज्ञान. आभार.

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छा लग रहा है ऐसा एक ब्लाग देख कर। कुछ लेख मैंने भी लिखे हैं बच्चों के शिक्षण पर...

    http://manoshichatterjee.blogspot.com/search/label/education%20and%20children

    चाहें तो यहाँ भी निगाह डालें। आपके अन्य लेखों का इंतज़ार रहेगा।

    मानसी

    ReplyDelete
  3. अच्छा लेख है. पसंद आया. अपना एक अनुभव आपके साथ बांटना चाहता हूँ.

    मैं अपनी पोती को स्कूल बस तक पहुँचने जाता हूँ. एक टीचर भी वहां से बस में जाती हैं. एक बार बस देर से आई, ड्राइवर जल्दी में था. एक छोटा बच्चा गिरते-गिरते बच्चा. टीचर देख रही थी. मैंने उस से कहा कि आप को बच्चों का ध्यान रखना चाहिए और ड्राइवर को समझाना चाहिए कि वह समय से आए और बस को जल्दी चलाने की कोशिश न करे. टीचर ने जवाब दिया, "मैं बड़ी क्लास के बच्चों को पढ़ाती हूँ". मुझे गुस्सा आ गया और मैंने वहीँ उस टीचर की क्लास ले ली. अब वह कुछ दूर खड़ी होती है, और इस के लिए बस को एक बार और रुकना पड़ता है. क्या ऐसे लोगों को टीचिंग में आना चाहिए?

    ReplyDelete
  4. आप का यह ब्लाग सही काम कर रहा है। आज भी हम लोग जितना प्राथमिकशालाओं के अध्यापकों के ऋणी हैं। पर प्राथमिक शालाओं के कितने अध्यापक आज अपने कर्तव्य का उस रीति से पालन कर रहे हैं जिन से वे गुरू की श्रेणी में रखे जा सकें।
    अध्यापकों के सामाजिक दायित्व और सामाजिक आचरण पर भी लिखें।

    ReplyDelete
  5. सुरेश जी ! इस ब्लॉग के मध्यम से से मैं प्राईमरी के मास्टर को या किसी अन्य शिक्षक को महिमा मंडित करने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ / इस बात को समझना होगा की अध्यापक भी समाज का ही अंग हैं और समाज की विकृतियों से परे नहीं हो सकता है / खास कर उन परिस्थितियों में जब कि आज अध्यापन का पेशा अपनाने वाले हर जगह से निराश होकर आए हुए व्यक्ति हों / फिर चयन प्रक्रिया का भी सवाल उठता है / आप स्वयं समझ रहे होंगे की मैं किस ओर इशारा करना चाहता हूँ / बस मेरा प्रयास इतना है कि चर्चा और विमर्श के द्वारा शिक्षक और समाज आपस में समन्वय बनाये रखे / कुछ भरोसा आप भी रखें शिक्षक शिक्षक ही है .........खुदा समझने कि कोशिश बहुत न्यायोचित तो नहीं /

    ReplyDelete
  6. मैं भी एक प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका हूँ ,और आप की बैटन से काफी हद तक सहमत हूँ / दरअसल हमारे कार्य करने की परिस्थितियों ने हमारे अन्दर कुंठा और निराशा को भरने का ही कार्य किया है / यह तो बच्चों से हमारा लगाव है की हम इन परिस्थितियों के बावजूद कार्य कर रहे हैं / समझने और सोचने की बात यही है की हम मूलतः अध्यापक न रहकर सरकारी कर्मचारी बनते जा रहे हैं / समाज को भी चाहिए की शिक्षा को पुत्र विभाग न समझे , बल्कि पुत्री विभाग समझे /

    ReplyDelete
  7. is muhim me , me sath doonga.email ke liye आभार.

    ReplyDelete
Post a Comment